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स्वप्न सुंदरी

स्वप्न सुंदरी 


गजल 

मैं आजकल नशीली आंखों से पी रहा हूं 
तेरे अधरों का शहद पीने से ही जी रहा हूं 

दहकते अनार से गालों पे नज़र चिपक गई 
इनमें पड़े गड्ढों में मेरी तबीयत फिसल गई 

तीखी तीखी नाक मेरे अंदर तक चुभ रही है 
मोतियों सी दंत पंक्तियां उजाला भर रही हैं

कमर तक लटकते बाल राग मल्हार गा रहे हैं
मेरे दिल के साज तेरा ही नाम रटते जा रहे हैं 

तेरी लौंग का लश्कारा मुझे सोने नहीं देता है 
नाज़ुक बांहों का हार मेरा करार लूट लेता है 

इस मतवाली चाल पे जान निसार हो जाए 
तू चले तो पूरे शहर में कत्ल ए आम हो जाए 

ख्वाबों में आकर कब तक मुझे और तरसाएगी 
क्या कभी धरती पे आकर तू मेरी बन पाएगी ? 

हरिशंकर गोयल "हरि"
22.12.20

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